चांद का इक सौदा हम करें, इक तुम करो ,
क्या मंज़ूर है उसे ,फैसला ये तुम करो ||
चांदनी का शामियाना ,या वो जाजम सी बिछे ,
या चिलमन सी वो सरके ,फैसला ये तुम करो ||
ख्वाब उसके हम बने या ,वो रहे हर ख्वाब में ,
बन सके वो इक नज़ारा ,फैसला ये तुम करो ||
इक इशारा हो तुम्हारा ,इक ज़रा सा हम करें ,
चांद किसके अंगना उतरे ,फैसला ये तुम करो ||
आसमां की ओढनी पर हो सितारे बेशुमार ,
या इक बिंदी सा वो चमके ,फैसला ये तुम करो ||
कंदील की मानिंद हो छत पर, या रहे महताब सा ,
या बना लें उसे सिरहाना ,फैसला ये तुम करो ||
ताज की बुर्ज हो या इक दरीचा टूटा सा ,
चांद पूरा हो या आधा ,फैसला ये तुम करो ||
जो हुआ ना कभी हमारा ,उस पे झगडे रात
तेरा है या है वो मेरा ,फैसला ये तुम करो ||
राजश्रीजी,
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है। बहुत सुन्दर कविता से आपने शुरुआत की। कविता के भाव बहुत ही अच्छे हैं। मुझे खासकर ये दो पंक्तियां बहुत पसन्द आई
इक इशारा हो तुम्हारा ,इक ज़रा सा हम करें ,
चांद किसके अंगना उतरे ,फैसला ये तुम करो ||
सागरजी आपके सहयोग और शुभकामनाओ का ही प्रतिसाद ये ब्लॉग है |हार्दिक धन्यवाद |
ReplyDeleteताज की बुर्ज हो या इक दरीचा टूटा सा ,
ReplyDeleteचांद पूरा हो या आधा ,फैसला ये तुम करो ||
जो हुआ ना कभी हमारा ,उस पे झगडे रात भर ,
तेरा है या है वो मेरा ,फैसला ये तुम करो ||
sunder panktiyan hain-- poori rachna men jo samarpan ka bhav hai wo kabil-e-tareef hai ----bdha
"चल पड़े मेरे कदम, जिंदगी की राह में, दूर है मंजिल अभी, और फासले है नापने..। जिंदगी है बादलों सी, कब किस तरफ मुड जाय वो, बनकर घटा घनघोर सी,कब कहाँ बरस जाय वो । क्या पता उस राह में, हमराह होगा कौन मेरा । ये खुदा ही जानता, या जानता जो साथ होगा ।"
ReplyDeleteaewsome line
ReplyDeleteBravo! Looking forward to more...
ReplyDeletegr8...
ReplyDeleteबहुत सुंदर ,
ReplyDeleteधन्यवाद आरिफ जी आपसे विज्ञजनो की सराहना आगे बढ़ने पर संबल देती है |
ReplyDeleteइंदु हमेशा की तरह साथ होने और देने का शुक्रिया मीत !
ReplyDeleteसोनू जी एवं जी एस जी आपका भी धन्यवाद
ReplyDeleteपाती तक न पठाई
ReplyDeleteND
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
बरखा गई मिलन-ऋतु बीती,
घोर घटा गहरी मन-चीती,
पर गागर रीती की रीती,
अधरों बूंद न आई
प्यास से प्यास बुझाई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
रोज उड़ाए काग सवेरे,
रोज पुराए चौक घनेरे,
कभी अँधेरे, कभी उजेरे,
पथ-पथ धूल रमाई,
हुई सब लोक हँसाई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
बहकी बगिया, महकी कलियाँ
गूंजे आँगन, झूमीं गलियाँ,
खुलीं न मेरी किन्तु किवरियाँ,
साँकल कौन लगाई
कि खोलत उमर सिराई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
मन की कुटिया सूनी-सूनी,
देह बनी चन्दन की धूनी,
बहुत हुई प्रिय, आँख-मिचौनी,
अब तो हो सुनवाई
सुबह संध्या बन आई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।
ReplyDeleteदीप, स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते,
मंजिल ही बन गया मुसाफिर चलते-चलते,
गाते गाते गेय हो गया गायक ही खुद
सत्य स्वप्न ही हुआ स्वयं को छलते छलते,
डूबे जहां कहीं भी तरी वहीं अब तट है,
अब चाहे हर लहर बने मंझधार मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।
अब पंछी को नहीं बसेरे की है आशा,
और बागबां को न बहारों की अभिलाषा,
अब हर दूरी पास, दूर है हर समीपता,
एक मुझे लगती अब सुख दुःख की परिभाषा,
अब न ओठ पर हंसी, न आंखों में हैं आंसू,
अब तुम फेंको मुझ पर रोज अंगार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।
अब मेरी आवाज मुझे टेरा करती है,
अब मेरी दुनियां मेरे पीछे फिरती है,
देखा करती है, मेरी तस्वीर मुझे अब,
मेरी ही चिर प्यास अमृत मुझ पर झरती है,
अब मैं खुद को पूज, पूज तुमको लेता हूं,
बन्द रखो अब तुम मंदिर के द्वार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।
अब हर एक नजर पहचानी सी लगती है,
अब हर एक डगर कुछ जानी सी लगती है,
बात किया करता है, अब सूनापन मुझसे,
टूट रही हर सांस कहानी सी लगती है,
अब मेरी परछाई तक मुझसे न अलग है,
अब तुम चाहे करो घृणा या प्यार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।?